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भारत का प्राचीन इतिहास,

      प्राचीन भारत  कि ऐतिहासिक स्रोत

    प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के मुख्यतः तीन स्रोत है।
    1-साहित्यिक स्रोत,
    2-विदेशी यात्रियों के विवरण,
    3- पूरातात्विक स्रोत,
     साहित्यक स्रोतओ में धार्मिक साहित्य एव धर्म वाले साहित्य सामिल है। धार्मिक साहित्य के अंतर्गत वेद, उपनिषद रामायण, महाभारत, पूरण स्मृति ग्रंथ बौद्ध तथा जैन ग्रंथों को  सम्मिलित किया जाता है।
    धर्मेतर साहित्य में ऐतिहासिक एवं समसामयिक साहित्य जैसे-अर्थशास्त्र, मुद्राराक्षस आदि को सम्मिलित किया जाता है। 
    मुख्य ऐतिहासिक ग्रंथों में अर्थशास्त्र (कौटिल्य), राज तरंगिणी (कल्हण), पृथ्वीराज रासो(चंदबरदाई), हर्षचरित (बाणभट्ट) उल्लेखनीय है।
    प्राचीन भारत का इतिहास

    विदेशी यात्रियों एवं लेखकों का विवरण से प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी मिलती हैं। यूनानी रोमन (क्लासिकल) लेखकों नेट एशिया तथा हेरोडोटस ( इतिहास के पिता) का नाम उल्लेखित है।

    • सिकंदर के साथ भारत आने वाले विदेशी लेखक अरिस्टोबूट्स, आनोसिक्रटस थे।
    • अन्य विदेशी लेखक मे मेगास्थनीज, प्लूतार्क, एवं स्ट्रेबो के नाम शामिल हैं
    • मेगास्थनीज, सेल्यूकस का राजदूत था, जो चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था। मेगास्थनीज इंडिका इंडिका में मौर्ययुगीन समाज एवं संस्कृत का विवरण मिलता है।
    • इंसान का वृतांत सी-यू-कि के नाम से प्रसिद्ध है
    • अरबी लेखक अलबरूनी महमूद गजनवी के साथ भारत आया था। प्रीति किताब-उल-हिंद अथवा तहकीक-ए- हिन्द(भारत की खोज) मैं तत्कालीन भारतीय समाज की आईओ दशा का वर्णन है।

    पुरातात्विक स्रोतमें अभिलेख मुद्रा मूर्तियां, चित्रकार, एवं स्मारक आते हैं अभिलेख सिलाओ स्तंभ ताम्रपत्रों, दीवारों, मुद्रा एवं प्रतिमाओं के आदि पर खुदे हैं।

    • पश्चिम एशिया में बोगजकोई से प्राप्त सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख ( 1400 ईसा पूर्व) में चार वैदिक देवताओं इंद्र, मित्र, वरूण, नासत्य का उल्लेख मिलता है
    • बेसनगर(विदिशा)से प्राप्त गरुण ही स्तंभ लेख से भागवत धर्म के प्रसार का विवरण मिलता है।
    अन्य अभिलेखों में हाथीगुंफा अभिलेख (कलिंग नरेश खारवेल) प्रयाग स्तंभ लेख (समुद्रगुप्त) जूनागढ़ अभिलेख (रुद्रदामन) ऐहोल अभिलेख(पुलकेशियन द्वितीय) आदि प्रमुख हैं।

    प्राचीन भारत के सिक्के एवं मुद्राएं

    • आहत सिक्के (पंचमार्क सिक्के) बिना लेख के प्राचीनतम सिक्के थे।
    • सिक्के पर नाम उत्कीर्ण करने की परंपरा यूनानी यों से आई हिंद यवनों ने सर्वप्रथम स्वर्ण सिक्के जारी किए। 
    • सर्वाधिक स्वर्ण मुद्राएं गुप्तों के काल में जारी की गई।
    • समुद्रगुप्त को कुछ सिक्के पर वीणा वादन करते हुए  दिखाया गया है। यज्ञ श्री 7 कड़ी (सातवाहन) की मुद्रा पर जलपोत का चित्र उत्कीर्ण है।
    • चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की  व्याघ्र शैली की मुद्राओं से शक विजय का विवरण मिला है

                          [ सिंधु-घाटी की सभ्यता]

    • सिंधु घाटी सभ्यता (23:50 से 1750 ईसवी) को हड़प्पा की सभ्यता भी कहा जाता है।हड़प्पा सभ्यता की प्रमुख विशेषता नगर नियोजन तथा जल निकासी व्यवस्था है
    • हड़प्पा की खोज सर्जन मार्शल के नेतृत्व में रायबहादुर दयाराम साहनी द्वारा वर्ष 1921 में की गई यह सभ्यता उत्तर में मांडा से लेकर दक्षिण में दायमाबाद तथा पूर्व से आलमगीरपुर से लेकर पश्चिम में कास्ययुगीन सभ्यता थीसिंधु सभ्यता से जुड़े भारत में स्थित महत्वपूर्ण स्थल है। जैसे-अहमदाबाद (गुजरात) के समीप लोथल, राजस्थान में कालीबंगा हिसार (हरियाणा) जिले में बनवाली चंडीगढ़ (पंजाब) के समीप रोपड़।
    लोथल से सबसे बड़ी जहाजों की गोदी (डाक- यार्ड) का साक्ष्य मिला है हड़प्पा लिपि भावचित्रात्मक है। लिपि दाएं से बाएं लिखी जाती थी।

    नगर योजना


    हड़प्पा सभ्यता की प्रमुख विशिष्टता नगर नियोजन तथा जल निकासी व्यवस्था है नगर के उच्च भाग को , नगर दुर्गा, एवं निम्न भाग को, निचला नगर, कहां गया । बंगा एकमात्र हड़प्पा कालीन स्थल था, इसका निचला शहर (सामान्य लोग सामान्य लोगों के रहने हेतु) भी किले से गिरा हुआ था।,
    मोहनजोदड़ो से प्राप्त वृहत स्नानागार,
      मोहनजोदड़ो से प्राप्त वृहत स्नानागार एक प्रमुख स्मारक है जिस के मध्य स्थित स्नान कुंड 11.88 मीटर लंबा 7.01 मीटर चौड़ा एवं 2.43 मीटर गहरा है इसका प्रयोग अनुष्ठानिक स्नान हेतु किया जाता है।

      धार्मिक जीवन( प्राचीन भारत का इतिहास)

      सिंधु सभ्यता के लोग  मात्रिदेवी की पूजा करते थे बृज पूजा की पालन भी प्रचलन था मंदिर के अवशेष यहा मिले नहीं मिलेे हैं। फिर भी मात्रिदेवी की उपासना के साथ-साथ कूबड़ वाला सांड लोगों के लिए विशेष प पूजनीय था नाग  की भी पूजाा होती थी

      आर्थिक जीवन
      • आर्थिक जीवन के प्रमुख आधार कृषि, पशुपालन शिल्प कला और व्यापारी थे
      • हड़प्पा सभ्यता से 9 फसलों की जानकारी मिलती है। गेहूं ,कपास, तरबूज, मटर, राई,सरसो एवं तिल। विश्व में सर्वप्रथम कपास की खेती प्रारंभ हुई,
      • बेल भेड़ बकरी आदि पशु पालते थे।
        भारत कि प्राइतिहास इतिहास
      लोगों का मुख्य पेशा शिल्प एवं उद्योग था। शिल्प कार्यों में मनके बनाना, शंख की कटाई, धातु कर्म, मोहर निर्माण तथा बाट बनाना समलित थे।
      चांहुदड़ो (सिन्ध)
      एन.जी. मजुमदार के प्रयास से 1931 में इसकी खोज हुई। 1935 में मैके ने इस कार्य को आगे बढ़ाया। यह स्थल सिंध में मोहनजोदड़ो 130 कि.मी. दक्षिण में स्थित है। यहाँ से मनके बनाने का एक कारखाना प्राप्त हुआ है। उत्तर-हड़प्पा (झूकर एवं झांगर संस्कृति) संस्कृति इस स्थल पर विकसित हुई। इस स्थल पर बिल्ली का पीछा करते हुए कुत्ते का साक्ष्य मिला है। सौंदर्य प्रसाधन में लिपस्टिक का प्रमाण मिला है। चांहुदड़ो एकमात्र ऐसा स्थल है जहाँ से वक्राकार ईंटें मिली हैं।
      यह गुजरात के अहमदाबाद जिले में पड़ता है। यह भोगवा नदी के किनारे अवस्थित है। 1957 में इसकी खोज रंगनाथ राव ने की। इस स्थल का आकार आयताकार है। लोथल के पूर्वी भाग में गोदीवाड़ा (डॉकयार्ड) का साक्ष्य मिला है। यह 214 मीटर × गहराई 3.3 मीटर का है। लोथल में दुर्ग एवं निचले शहर के बीच विभाजन नहीं है। उत्खननों से लोथल की जो नगर-योजना और अन्य भौतिक वस्तुएँ प्रकाश में आयी हैं, उनसे लोथल एक लघु हड़प्पा या मोहनजोदड़ो नगर प्रतीत होता है। अग्निवेदिका का साक्ष्य लोथल से मिलता है। यहाँ चावल का साक्ष्य मिलता है। फारस की एक मुहर प्राप्त हुई है। यहीं घोड़े की लघु मृणमूर्ति प्राप्त हुई है तथा हाथी दांत का एक स्केल प्राप्त हुआ है। तीन युग्मित समाधि (तीनों जुड़े) प्राप्त हुई है। एक मकान से दरवाजा मुख्य सड़क की ओर खुलने का प्रमाण मिलता है। अनाज पीसने की चक्की का साक्ष्य भी मिलता है। लोथल से प्राप्त एक भांड पर ही चालाक लोमड़ी की कथा अंकित है। यहाँ से ममी की आकृति भी प्राप्त हुई है।यह गुजरात के अहमदाबाद जिले में पड़ता है। यह भोगवा नदी के किनारे अवस्थित है। 1957 में इसकी खोज रंगनाथ राव ने की। इस स्थल का आकार आयताकार है। लोथल के पूर्वी भाग में गोदीवाड़ा (डॉकयार्ड) का साक्ष्य मिला है। यह 214 मीटर × गहराई 3.3 मीटर का है। लोथल में दुर्ग एवं निचले शहर के बीच विभाजन नहीं है। उत्खननों से लोथल की जो नगर-योजना और अन्य भौतिक वस्तुएँ प्रकाश में आयी हैं, उनसे लोथल एक लघु हड़प्पा या मोहनजोदड़ो नगर प्रतीत होता है। अग्निवेदिका का साक्ष्य लोथल से मिलता है। यहाँ चावल का साक्ष्य मिलता है। फारस की एक मुहर प्राप्त हुई है। यहीं घोड़े की लघु मृणमूर्ति प्राप्त हुई है तथा हाथी दांत का एक स्केल प्राप्त हुआ है। तीन युग्मित समाधि (तीनों जुड़े) प्राप्त हुई है। एक मकान से दरवाजा मुख्य सड़क की ओर खुलने का प्रमाण मिलता है। अनाज पीसने की चक्की का साक्ष्य भी मिलता है। लोथल से प्राप्त एक भांड पर ही चालाक लोमड़ी की कथा अंकित है। यहाँ से ममी की आकृति भी प्राप्त हुई है।
      कालीबंगा
      इसका अर्थ है काले रंग की चूड़ियाँ। घग्गर नदी के तट पर यह राजस्थान के गंगानगर जिले में स्थित है। दुर्गक्षेत्र का आकार वर्गाकार है। इस क्षेत्र के उत्खननकर्ता अमलानन्द घोष (1953) और बी.के. थापर (1960) हैं। पूर्व-हड़प्पा सभ्यता का यहाँ से साक्ष्य भी मिलता है। यहाँ ईंट के चबूतरे पर सात हवन कुड का साक्ष्य मिलता है। कालीबंगा में कच्ची ईंटों का प्रयोग हुआ है। यहाँ जुते हुए खेत का साक्ष्य मिला है। कालीबंगा में अधिक दूरी पर सरसों की फसल बोयी जाती थी तथा कम दूरी पर चना बोया जाता था। यहाँ अलंकृत ईंटों का साक्ष्य मिला है। कालीबंगा में लकड़ी के पाइप का प्रमाण मिला है। कालीबंगा में दोनों खंड दुगों से घिरे थे। यहाँ से प्राप्त बेलनाकार मुहरें मेसोपोटामिया से प्राप्त मुहरों के समरूप थीं।
      बनवाली
      यह हरियाणा के हिसार जिले में स्थित है। इसकी खोज 1973 ई. में आर.एस. बिष्ट द्वारा की गई। यहाँ से दो सांस्कृतिक अवस्थाएँ प्राप्त हुई हैं। हड़प्पा पूर्व और हड़प्पाकालीन। यहाँ अच्छे किस्म का जौ प्राप्त हुआ है। बनवाली से ताँबे का वाणाग्र प्राप्त हुआ है। यहाँ से हल की आकृति का खिलौना प्राप्त हुआ है। यहाँ नाली पद्धति का अभाव है। यहाँ से ताँबे की कुल्हाड़ी प्राप्त हुई है। बनवाली की नगर-योजना शतरंज के बिसात या जाल के आकार की बनायी गयी थी। सड़कें न तो सीधी मिलती हैं और न एक-दूसरे को समकोण पर काटती हैं। यहाँ से पत्थर एवं मिट्टी के मकानों के साक्ष्य मिलते हैं। यहाँ से सड़कों पर बैलगाड़ियों के पहियों के निशान मिले हैं।
      रोपड़
      सतलुज नदी के किनारे यह पंजाब में स्थित है। 1953-54 में यहाँ खुदाई यज्ञदत शर्मा  के अन्तर्गत कराई गई। यहाँ से हड़प्पा-पूर्व और हड़प्पाकालीन अवशेष प्राप्त होता है। यहाँ से ताँबे की कुल्हाड़ी प्राप्त हुई है। यहाँ के एक कब्रगाह में आदमी के साथ कुत्ते को दफनाए जाने का भी साक्ष्य मिला है। रोपड़ से संस्कृति के पाँच स्तर प्राप्त हुए हैं जो इस प्रकार हैं- हड़प्पा, चित्रित धूसर मृदभांड, उत्तरी काले पॉलिस वाले, कुषाण, गुप्त और मध्यकालीन मृदभांड।
      सुरकोटड़ा
      यह गुजरात के कच्छ प्रदेश में स्थित है। उत्खनन का काम जगपति जोशी के अधीन 1964 में किया गया। यहाँ से घोड़े की अस्थियाँ प्राप्त हुई हैं। साथ ही यहाँ एक अनोखे कब्रगाह का साक्ष्य मिला है।
      आलमगीरपुर
      हिण्डन नदी के किनारे यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित है। इसकी खुदाई यज्ञदत्त शमा ने 1958 में कराई। यह हड़प्पा सभ्यता के अन्तिम चरण को रेखांकित करता है।
      रंगपुर
      यह गुजरात के काठियावाड़ जिले में स्थित है। यह मादर नदी के समीप है। इसकी खुदाई 1953-54 में रंगनाथ राव के अन्तर्गत करायी गई। यहाँ से उत्तर हड़प्पा संस्कृति का साक्ष्य मिलता है। यहाँ धान की भूसी का साक्ष्य मिला है। यहाँ कच्ची ईंटों का दुर्ग भी मिला है।
      अलीमुराद
      यह सिंध प्रांत में स्थित है। यहाँ बैल की लघु मृण्मूर्ति मिली है। यहाँ से भी कांसे की कुल्हाड़ी प्राप्त हुई है।
      सुत्कोगेडोर
      यह स्थल बलूचिस्तान में दाश्क नदी के किनारे स्थित है। इसकी खुदाई 1927 में औरेल स्टाइन के अधीन की गई। यहाँ से परिपक्व हड़प्पा काल का साक्ष्य मिला है। यहाँ से मनुष्य की अस्थि, राख से भरा बर्तन, ताँबे की कुल्हाड़ी और मिट्टी से बनी चूड़ियाँ प्राप्त हुई हैं।
      अलाहदिनों
      सिंधु नदी और अरब सागर के संगम से 16 कि.मी. उत्तर पूर्व में स्थित है। इसकी खुदाई फेयर सर्विस ने करायी।
      कोटदीजी
      यह मोहनजोदडो से 50 कि.मी. पूर्व में स्थित है। इसकी खुदाई (1955-57) में एफ.ए. खान ने कराई। इसके अलावा अन्य स्थलों के बारे में भी महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं। आमरी में बारहसींगा का नमूना मिला है। सर्वप्रथम सिंधु सभ्यता के लोगों ने ही चाँदी का उपयोग किया। धौलावीरा भारत में स्थित सबसे बड़ा हडप्पा स्थल है। दूसरा बड़ा स्थल राखीगढ़ी है। सम्पूर्ण सिंधु सभ्यता के स्थलों में क्षेत्रफल की दृष्टि से धौलावीरा का स्थान चौथा है।
      धौलावीरा
      यह स्थल गुजरात के कच्छ जिले के मचाऊ तालुका में मानसर एवं मानहर नदियों के मध्य अवस्थित हैं। इसकी खोज जगपति जोशी ने 1967-68 में की परन्तु इसका विस्तृत उत्खनन रवीन्द्र सिह विष्ट के द्वारा किया गया। यह ऐसा प्रथम नगर है जो तीन भागों में विभाजित था- दुर्गभाग, मध्यम नगर तथा निचला नगर। यहाँ से 16 विभिन्न आकार-प्रकार के जलाशय मिले हैं, जो एक अनूठी जल संग्रहण व्यवस्था का चित्र प्रस्तुत करते हैं। धौलावीरा नगर के दुर्ग भाग एंव मध्यम भाग के मध्य एक भव्य इमारत के अवशेष, चारों ओर दर्शकों को बैठने के लिए बनी हुई सीढ़ियों को, इंगित करते हैं। धौलावीरा से दस बड़े अक्षरों में लिखा एक सूचना पट्ट का प्रमाण मिला है।
      कुणाल
      हाल में यह स्थल प्रकाश में आया है। यह हरियाणा में स्थित है। यह एक मात्र ऐसा स्थल है, जहाँ से चाँदी के दो मुकुट मिले हैं।
      राखीगढ़ी
      हरियाणा के हिसार जिले में सरस्वती तथा दुहद्वती नदियों के शुष्क क्षेत्र में राखीगढ़ी, सिन्धु सभ्यता का भारतीय क्षेत्र में धौलावीरा के बाद, दूसरा विशालकाय नगर है। इसका उत्खनन व्यापक पैमाने पर 1997-99 के दौरान अमरेन्द्र नाथ के द्वारा किया गया। राखीगढ़ी से प्राक हड़प्पा एंव परिपक्व हड़प्पा युग इन दोनों कालों के प्रमाण मिले हैं।

      सिन्धु घाटी सभ्यता Indus Valley Civilization

      विश्व का कौन-सा कोना सर्वप्रथम सभ्यता की प्रथम किरण से प्रकाशित हुआ था, इसका कोई ज्ञान दुर्भाग्यवश प्राप्त नहीं है। हाँ, इतना अवश्य ज्ञात हो। सका है कि सभी सभ्यताएँ नदी घाटियों में ही उदित हुई। भारत में भी सिन्धु नदी की घाटी में एक सभ्यता का जन्म हुआ जिसका ज्ञान हमें लम्बे समय तक नहीं रहा। सिन्धु सभ्यता आद्य-ऐतिहासिक काल की सभ्यता थी। आद्य-ऐतिहासिक काल इसे इसलिए कहा जाता है क्योंकि सिन्धु लिपि को अब तक नहीं पढ़ा जा सका है। यह आश्चर्यजनक सांस्कृतिक उपलब्धियों का प्रतिनिधित्व करता है। यह पुरातन तथा आधुनिक भारतीय सभ्यता के कुछ महत्त्वपूर्ण आयामों के दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण है। इस सभ्यता का अभिज्ञान पुरातत्त्व विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण देन है। इस सभ्यता की खोज ने भारतीय सभ्यता के इतिहास को ही बदल दिया है। आर्यों के साहित्यिक वेदों से ही पहली बार हमें भारत के सामाजिक एवं धार्मिक विचारों तथा आर्थिक और राजनैतिक अवस्थाओं का विस्तृत परिचय मिला। फलत: यह अवश्यंभावी था कि व्यावहारिक दृष्टि से भारत का इतिहास इस काल से प्रारम्भ किया जाये और भारतीय संस्कृति की रूपरेखा का आरम्भ आर्य सभ्यता से हो। किन्तु, 1922-23 ई. में होने वाली एक खोज के परिणामस्वरूप इस धारणा में परिवर्तन हुआ। इस धारणा के परिवर्तन का कारण था सिन्धु क्षेत्र में होने वाले उत्खननों के फलस्वरूप एक अत्यन्त पुरातन सभ्यता की खोज। सिन्धु घाटी की सभ्यता इसी खोज का प्रतिफल है।
      कालनिर्धारण
      एच. हेरास ने नक्षत्रीय आधार पर इसकी उत्पत्ति का काल 6000 ई.पू. माना है। मेसोपोटामिया में 2350 ई.पू. का सरगॉन का अभिलेख मिला है, उसके आधार पर इसकी समयावधि 3250-2750 ई.पू. मानी गयी है। जॉन मार्शल ने 3250-2750 ई.पू. में इसका काल निर्धारित किया है जबकि अर्नेस्ट मैके ने 2800-2500 ई.पू. को इसका काल माना है। माधोस्वरूप वत्स ने 3500-2700 ई.पू. और सी.जे. गैड ने 2300-1750 ई.पू. इसका काल माना है। माटींसर व्हीलर 2500-1500 ई.पू. को इस सभ्यता का काल मानते हैं जबकि फेयर सर्विस 2000-1500 ई.पू. को। रेडियो कार्बन पद्धति के अनुसार, इसका समय 2350 ई.पू. से 1750 ई.पू. माना गया है। इस संदर्भ में ऐसा माना जाता है कि इसका काल लगभग 2600 ई.पू. एवं 1900 ई.पू. के बीच निर्धारण किया जा सकता है।
      नामकरण
      इसके लिए कई नाम प्रचलित हैं, यथा, सिन्धु घाटी की सभ्यता, सिन्धु सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता और हाल में इसके लिए सिन्धु-सरस्वती सम्पदा जैसे नामकरण पर बल दिया जाने लगा है किन्तु हड़प्पा सभ्यता नाम अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है क्योंकि पुरातात्विक उत्खनन के पश्चात् किसी सभ्यता का नामकरण प्रथम उत्खनित स्थल के आधार पर किया जाता रहा है।
      पुरातात्विक स्रोत
      हमें पुरातात्विक स्रोत से ही मुख्यतः इस सभ्यता का अभिज्ञान प्राप्त होता है क्योंकि इस सभ्यता के बारे में कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है। मुहर, टेरीकोटा फिगर्स (मृण्मूर्तियाँ), चक्र की आकृति, महल और खण्डहर, मेसोपोटामिया से प्राप्त बेलनाकार मुहर, लोथल से प्राप्त एक छोटी बेलनाकार मुहर, 2350 ई.पू. की मेसोपोटामिया की मुहर, मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक वाट और लोथल से प्राप्त हाथी दाँत के माप का पैमाना आदि स्रोत उल्लेखनीय हैं।

      उद्भव
      इस सभ्यता के उद्भव पर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वानों ने प्रारम्भ में इसकी उत्पत्ति पश्चिमी एशिया (मेसोपोटामिया) में ढूंढ़ने का प्रयास किया, जबकि कुछ पुराविदों ने इसका उद्गम ईरान-बलूची-सिंध संस्कृतियों से माना है। अर्वाचीन भारतीय पुराविदों ने भारत की ग्रामीण संस्कृतियों में इसका स्रोत ढूंढने का प्रयास किया है। संस्कृति का विकास मेसोपोटामिया में कालक्रम की दृष्टि से हड़प्पा संस्कृति से पहले हुआ था। इसलिए विद्वानों का इसके प्रभाव से प्रभावित होना स्वाभाविक है, पर विद्वानों में इस पर पर्याप्त मतभेद है। इस सभ्यता का विकास मेसोपोटामिया के प्रभाव से हुआ, इस विचार के प्रवर्तक हैं- मॉर्टीमर व्हीलर, गॉर्डन चाइल्ड, लियोनार्ड बूली, डी.डी. कौशांबी, क्रेमर। इनमें कौशांबी का तो यहाँ तक कहना है कि मिश्र, मेसोपोटामिया और सिंधु सभ्यता के जनक एक ही मूल के व्यक्ति थे जबकि क्रेमर के अनुसार लगभग 2400 ई.पू. में मेसोपोटामिया से लोग आए और उन्होंने यहाँ की परिस्थिति के अनुकूल अपनी संस्कृति में परिवर्तन कर सिंधु सभ्यता का निर्माण किया। परन्तु, इसके विपक्ष में भी मत व्यक्त किया जा सकता है। इसके विपक्ष में कहना है कि मेसोपोटामिया में स्पष्ट रूप से पुरोहितों का शासन था, सिन्धु सभ्यता में यह स्पष्ट नहीं है। मेसोपोटामिया की लिपि कीलनुमा लिपि है; जबकि सिन्धु सभ्यता के लोग चित्रलेखात्मक लिपि का प्रयोग करते थे। इसके अतिरिक्त सिंधु सभ्यता में बड़े पैमाने पर पक्की ईंटों का प्रयोग हुआ है; जबकि मेसोपोटामिया में यह बात स्पष्ट नहीं है। इसके अतिरिक्त एक दूसरी विचारधारा भी है जिसका कहना है कि इस सभ्यता की उत्पत्ति ईरानी-बलूची ग्रामीण संस्कृति से हुई है। इसके प्रतिपादक ब्रिजेट एवं रेमण्ड आॉलचिन, फेयरसर्विस, रोमिला थापर का मानना है कि बलूची-ईरानी संस्कृति का भारतीयकरण होता रहा। फेयर सर्विस के अनुसार-धर्म इस संस्कृति का प्रमुख आधार था जिसके कारण इस संस्कृति के नागरीकरण की दिशा में तीव्र विकास हुआ। एक तीसरी विचारधारा भी इस सभ्यता को लेकर है जो मानती है कि देशी प्रभाव (सोथी-संस्कृति) से इस सभ्यता की उत्पति हुई है। अमलानन्द घोष, धर्मपाल अग्रवाल, ब्रिजेट एवं रेमण्ड आॉलचिन भी इसी मत के प्रतिपादक हैं। कुछ विद्वान् सिन्धु घाटी की सभ्यता का विकास भारत की धरती पर मानते हैं। राजस्थान के कुछ भागों से प्राक्-हड़प्पाकालीन मृदभांड प्राप्त हुए हैं। 1953 ई. में सर्वप्रथम अमलानन्द घोष ने बीकानेर क्षेत्र में सोथी संस्कृति की खोज की। धर्मपाल अग्रवाल, ब्रिजेट एवं रेमण्ड ऑलचिन आदि विद्वानों ने यह धारणा प्रकट की है कि सिंधु सभ्यता का प्रारंभिक आधार सोथी संस्कृति में ही खोजा जा सकता है। सिन्धु सभ्यता धर्मपाल अग्रवाल के अनुसार, ग्रामीण सोथी संस्कृति का ही नागरिक रूप है। चार्ल्स मेसन नामक इतिहासकार ने 1826 ई. में हड़प्पा नामक गाँव का दौरा किया। 1872 ई. में कनिंघम महोदय ने इस प्रदेश का दौरा किया। तीसरी सहस्राब्दी ई.पू. के, पूर्व के मध्य बहुत से छोटे-छोटे गाँव बलूचिस्तान एवं अफगानिस्तान में बस गए। बलूचिस्तान में किली गुल मोहम्मद और अफगानिस्तान में मुंडीगाक और बलूचिस्तान के मेहरगढ़ नामक स्थान पर 5000 ई.पू. के लगभग का कृषि का साक्ष्य प्राप्त होता है।
      सिंधु सभ्यता के विकास के चरण
      नवपाषाण काल (5500-3500 ई.पू.)- इस काल में बलूचिस्तान और सिंधु के मैदानी भागों में स्थित मेहरगढ़ और किली गुल मुहम्मद जैसी बस्तियाँ उभरीं। खेती की शुरूआत हुई, स्थायी गाँव बसे।
      पूर्व हड़प्पा काल (35002600 ई.पू.)- ताँबा, चाक एवं हल का प्रयोग हुआ। अन्नागारों का निर्माण हुआ। ऊंची-ऊँची दीवारें बनीं। सुदूर व्यापार की शुरूआत हुई।
      पूर्ण विकसित हड़प्पा युग (2600-1800 ई.पू.)- सम्पूर्ण विकसित क्षेत्र 12,99,600 वर्ग कि.मी. था। यह पूरब से पश्चिम 1600 कि.मी. एवं उत्तर से दक्षिण 1400 कि.मी. था। हड़प्पा सभ्यता से संबद्ध लगभग 1400 स्थल प्रकाश में आए हैं। इनमें लगभग 6 अथवा 7 स्थलों को नगर का दर्जा दिया जाता हैं। उत्तरी क्षेत्र जम्मू में मांडा, दक्षिण में दैमाबाद, पश्चिम में सुत्कागेडोर और 3 पूरब में आलमगीरपुर इसकी सीमा है। इस सभ्यता के अवशेष पाकिस्तान और भारत के पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, उ.प्र. सीमांत, बहावलपुर, राजस्थान, हरियाणा, गंगा-यमुना में दोआब, जम्मू, गुजरात और उत्तरी अफगानिस्तान से प्राप्त हुए हैं।
      1. सिंध- मोहनजोदड़ो चांहुदड़ो, जुडेरजोदड़ो, आमरी, कोटदीजी, अलीमुराद।
      2. पंजाब- हड़प्पा, रोपड, बारा, संघोल।
      3. हरियाणा- राखीगढ़ी, मिताथल, बनवाली।
      4. राजस्थान- कालीबंगा।
      5. जम्मू- मांडा।
      6. गंगा-यमुना, दोआब- आलमगीरपुर, हुलास।
      7. गुजरात- देशलपुर, सुरकोटड़ा, धौलावीरा (कच्छ प्रदेश) काठियावाड्-रंगपुर, रोजदी, लोथल, मालवण (सूरत) भगवतरव।
      8. बलूचिस्तान- सुत्कागेडोर, सुतकाकोह, बालाकोट, डाबरकोट, राणां घुंड

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